Saturday, October 1, 2011

अस्तित्व को मेरे.....

भीड़ में चलना

स्वीकारा नहीं मैंने कभी




भीड़ में तो भेड़ चलती है,

माँ तुमने जीवन का गुरु मन्त्र दिया!



छू लूं मैं जिस जीवन को,

वो 'स्वर्ण' हो जाये!

बाबा ~

तुमने कैसा परस मणि हाथों में दे दिया!



अस्तित्व को मेरे

हर अपने बेगाने ने सराहा

पूरा जब भी करना चाहा,

वक़्त, बाज़ीगर-सा, ठुकरा के चल दिया!



आज तुम नहीं हो,

माँ-बाबा,

तुम्हारी सीख संग है

स्वर्ण और परस मणि का सत्य संग है,

मेरे इन दो नैनों में जिजीविषा संग है,

कि

अस्तित्व को मेरे,

तुम्हारे आशिर्वाद ने पूरा कर दिया!



~ स्वाति- मृगी~

१-अक्टूबर-२०११

शाम ७.३० बजे

For the Batch of SIMC 2011....

Dear All, Anurag 'Baba' Shah wrote in his status yesterday: "Last comparison of academic marks...now onwards never ever will get a chance to compare and analyse Why I got less or I was not expecting so much marks...end of an era..."

I thought though it appears to be a simple statement but it has deep cocncern and connotation. Anurag's status prompted me to write a small poem for him. As an after thought, this poem is for all of you....I re-present it for all of you here thus...

अनुराग, तुम्हारा ये कम्मेंट पढ़ा और बरबस कुछ खट्टा-मीठा लिखा गया...तुम्हारे लिए... तुम सबके लिए....

की नादान थे हम भी कभी, ये ख़याल अभी रहने दो..
जी भर के जी लो यहाँ, ये दो चार दस, बस, रहने दो!

...इक सदी वो भी थी जब जमात दर जमात बढ़ते थे,
अब तो सिर्फ तुम इंसान की जमात बढ़ने दो!

किताबें पढ़ ली हमने, लो विशारद हो गए,
माँ बाप की हर आस को मगर, ज़िन्दा ज़रूर रहने दो!

सींच सींच इस जग ने, लो बनाया तुम्हे बड़ा वृक्ष है,
वक़्त आ गया भैया, की अब इसे भी तुम कुछ वापस दो!

की नादान थे हम भी कभी, ये ख़याल अभी रहने दो..
जी भर के जी लो यहाँ, ये दो चार दस, बस, रहने दो!

~ सस्नेह, स्वाति 'मैम'~
जून  ३०, २०११