मैं घुमंतू ..
हर यात्रा अधूरी रह जाती है....
हम कभी पहाड़ों पे चढ़ना भूल जाते हैं
तो कभी रह जाता है सूर्यास्त
कभी किसी शिवाले में बैठ कर भी
ओम का नाद,
कंठ में अवरुद्ध हो जाता है...
तो कभी
छलांगे मारते दृग को निहारना !
मैंने, एक घुमंतू ने,
हमेशा ये पाया है,
कभी कोई यात्रा पूर्ण नहीं हो सकती !
मन हमेशा
बल खाती नदी की सिलवटों में पीछे रह जाता है
अप्रैल में देखे नयनाभिराम
फूलों से बौराए सेब के पेड़–बागीचे
मुझे फिर जुलाई में
बुलाते हैं,
सेबों से लदे पेड़ देखने!
अखरोट के गिरे छिलके उठाते
मुझ घुमंतू के हाथ,
उस रोज़ अचानक रुक गए--
जब ठूंठ होते आये पेड़ की ओर देख
एक चरवाहा बोला,
‘बीबी जी ,
कभी इसमें सौ दो सौ अखरोट
एक ही डाल पर लटकते थे
अब सिर्फ़ एखाद दो’
और मेरा मन
उन सैकड़ों अखरोटों के बारे में
सोचने लगता है !
मैं घुमंतू
खूब जानने लगी हूँ
यात्रा में मिले लोग
अगली दफ़ा उसी यात्रा में,
शायद दोबारा नहीं मिलेंगे !
जो मिले हैं, मुझसे जुड़े हैं
वो पूरी यात्रा भर भी
संग नहीं चलेंगे !
जो स्नेह आज है, वो कल नहीं रहेगा
द्वेष का लेकिन पता नहीं ...
शायद वो बढेगा !
मैं घुमंतू,
एक यायावर सी,
समझ गयी हूँ
हर बार, हर यात्रा पर,
ऐसा बहुत कुछ है
जो अविजित बचा रहेगा
और जिसे प्राप्य करने के लिए
सदैव अनगिन आव्हान
हवा में घुले मिलेंगे !
और यही जो अविजित रह गया
जो प्राप्य होकर भी अप्राप्य रहा ,
मुझ घुमंतू को सीखा गया है ,
अनासक्ति
अलगाव
और निर्लिप्तिता के
संविधान !
की,
सब कुछ पीछे छोड़,
नयी यात्राओं पर निकल जाना...
तटस्थता,
घुमंतू होने का पहला नियम है
~ स्वाति-मृगी ~