मैं, स्वाति..कहते
हैं स्वाति नक्षत्र में जब पानी की बूँदें धरा पर गिरती हैं तो आतुर चातक की प्यास
बुझाती हैं..स्वाति नक्षत्र में ही जब पानी की बूँदें सीप में पड़ती हैं तो मोती
बनती हैं..
मुझे नहीं मालूम मेरे आई-पप्पा ने इनमे से किस कारणवश मेरा नाम रखा
..लेकिन मेरी कोशिश है की मैं अपने नाम का अर्थ जी सकूँ और लोगों के काम आ सकूँ!
मेरा जन्म माँ नर्मदा के किनारे बसे शहर जबलपुर में 26 नवम्बर 1969 को हुआ था। शुरुआती शिक्षा जबलपुर में
ही हुयी लेकिन अधिकाँश शिक्षा इंदौर शहर में हुई । मैंने कभी अपनी और कभी अपने
माँ-पापा की ख़ुशी के लिए उपाधियाँ प्राप्त की। जूलॉजी में एम एस सी करने के
उपरान्त एम बी ए (मार्केटिंग), तदुपरांत बिज़नेस मेनेजमेंट
में पी एच ड़ी की उपाधि प्राप्त की। अनेकों बड़ी प्रबंधन की शिक्षण संस्थाओं में
अध्यापन का कार्य किया, मल्टीनेशनल , रिसर्च
आदि बड़ी कंपनियों में भी कार्य किया और इन दिनों पुणे के सिम्बायोसिस यूनिवर्सिटी
के मैनेजमेंट स्टडीज़ इंस्टिटयूट में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पढ़ाती हूँ
।
पठन - पाठन से हमेशा ही लगाव रहा। माँ-पापा ने बहुत बचपन में रंजित
देसाई, ग . दी . माडगुलकर , शिवाजी
सामंत के उपन्यास, कविता-विश्व से परिचित करवा दिया था ।
रंगमंच, अभिनय, वाद-विवाद में बाल्य -
काल से ही विशेष आकर्षण रहा और इनमें राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के
पुरस्कार भी जीते । फिर वह वक़्त भी आया जब हिंदी, अंग्रेजी
और मराठी के श्रेष्ठ कवि , लेखक एवं साहित्यकारों को पढ़ना
शुरू किया और इनकी सोच ने मेरी सोच को भी गढ़ा । मेरे गुरुओं ने, मेरी शाला सेंट रेफ़िअल्स , मेरे महाविद्यालय होलकर
साइंस कॉलेज ने भी न केवल मेरे अध्ययन वरन मेरे सर्वांगीण विकास में अपूर्व योगदान
दिया। यही समय था जब साहित्य-प्रेम ने गहराई तक अपनी जगह मेरे दिल में बना ली और
मैंने इसी पढने - लिखने को जीवन का सलीका और अविभाज्य हिस्सा बना लिया।
मेरी व्यावसायिक नियुक्तियों ने
मुझे वे शहर भी दिखा दिए जो मैंने अपने पिता के सरकारी
तबादलों के वक़्त नहीं देखे
थे। इन शहरों में भाँति - भाँति के लोगों से मुलाकात होती रही, उनके
विचारों ने, उनके संग हुए
संवाद-चर्चाओं ने मेरी सोच को गढ़ा । महाराष्ट्रियन होने के बावजूद हिंदी
भाषा के
प्रति लगाव होने का बड़ा कारण है मेरा इंदौर शहर में लालन-पालन होना । इंदौर शहर की कला, संस्कृति, यहाँ के बाशिंदों
की दरियादिली और उदार- उदात्त स्वभाव ने मेरे चेतन
अवचेतन मन पर जो कुछ छाप ड़ाली ,
मैं उसी का प्रतिबिम्ब मात्र हूँ।
माँ-पापा बताते थे की , भेड़ा घाट
(जबलपुर के पास संगमरमर के पहाड़ों के बीच से जहाँ नर्मदा
मइया अपने नवरसों के
दर्शन करवाती हैं) के किनारों पर खेलते हुए, अक्सर मैं
फिसल कर मैया
की गोद में चली जाती थी और सौभाग्यवश हर बार मुझे वहाँ खड़े मल्लाह
बाहर खींच लाते थे !
शायद नर्मदा संग रिश्ता तभी जुड़ गया था।
नर्मदा को सौन्दर्य की नदी भी कहा गया है उसके चुलबुले, खिलखिलाते , हँसते गाते रूप को रेवा
नाम से
पुकारा जाता है..माँ नर्मदा के इन अनेक रूपों ने मुझे हमेशा ही मोहित किया है।
कहीं
मन में ये हमेशा रहा की नर्मदा के इन रूपों को शब्दों का जामा दिया जाए।
अमृतलाल वेगड़ जी ने हिंदी में नर्मदा पर बहुत ही बेहतरीन किताबें लिखी हैं जिनका
मेरे मन पर बहुत प्रभाव पड़ा है। जीवन में हम सभी ख़ुशी एवं गम के हिंडोले में झूलते
हैं, विषाद-पीड़ा-द्वेष-प्रेम सभी भावों से गुजरते हैं
...कभी उग्र तो कभी बेहद शांत हो जाते हैं! मैंने अपनी कविताओं को नर्मदा के
अनेकानेक रूपों संग जोड़ते हुए आपके समक्ष इस काव्य-संग्रह में लाने का प्रयास किया
है।
रेवा पार से यह मेरा प्रथम काव्य-संग्रह है। आशा है आप सभी का स्नेह, आशिर्वाद ,सहयोग हमेशा
साथ रहेगा..मेरी गलतियों को मुझे जरुर बताइयेगा और जब वक़्त मिले, पीठ भी थप-थपा दीजियेगा । आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा