Friday, March 21, 2014

धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था ....


शाम ढले फिर छा गये थे बादल 
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था 
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आँसुओं को सूखाया था !

मेरी हँसी से अपनी जेबें भर
उसने इक बाग लगाया था
फूलों में बिंध अपने, तब,
वो मुझसे ही शरमाया था !

ओढ़ कर चादर शरद की
उसने तो अ-लगाव जलाया था ,
मैंने सावन रुतु सा, किन्तु,
जीवन को सजाया था !

शाम ढले फिर छा गये थे बादल
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आंसूओं  को सूखाया था !

~स्वाति-मृगी ~
(९-१० जुलाई २०१३ की मध्य रात्रि )

No comments: