शाम ढले फिर छा गये थे बादल
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आँसुओं को सूखाया था !
मेरी हँसी से अपनी जेबें भर
उसने इक बाग लगाया था
फूलों में बिंध अपने, तब,
वो मुझसे ही शरमाया था !
ओढ़ कर चादर शरद की
उसने तो अ-लगाव जलाया था ,
मैंने सावन रुतु सा, किन्तु,
जीवन को सजाया था !
शाम ढले फिर छा गये थे बादल
धूप ने ओट से जब कुछ झाँका था
मैंने छत पर आकर तब ,
अपने आंसूओं को सूखाया था !
~स्वाति-मृगी ~
(९-१० जुलाई २०१३ की मध्य रात्रि )
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