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"अंत में अमृता की अपने-आपसे हुई मुलाकात 'मैं और मैं' का आखिरी हिस्सा यहाँ जरुर दर्ज करना चाहता हूँ,जिसमें उसके व्यक्तित्व का एक खास पहलू -उसके मन की फकीरी -बड़ा उभरकर आया है|एक दर्द है की मैं सिर्फ एक शायर बन कर रह गयी-एक शायर,एक अदीब|
हजारीप्रसाद द्विवेदी के एक नाविल में एक राजकुमारी एक ऋषि-पुत्र को प्यार करती है और इस प्यार को वह छाती में जहां छिपाती है वहां किसी की दृष्टि नहीं जाती| पर एक बार उसकी सहेलियों-जैसी बहन उससे मिलने आती है,और वह इस प्यार की गंध पा जाती है|उस समय राजकुमारी उससे कहती है,"अरु!तुम कवि बन गयी हो,इसलिए सब कुछ गड़बड़ा गया...आदिकाल से तितली फूल के इर्द-गिर्द घुमती है,बेल पेड़ के गले लगती है,रात को खिलनेवाला कमल चांद की चांदनी के लिए व्याकुल होता है,बिजली बादलों से खेलती है पर यह सब कुछ सहज मन होता था,कभी कोई इनकी ओर उंगली नहीं उठाता था,न कोई इनके भेद को समझने का दावा करता था - की एक दिन कवि आ गया,वह चीखकर कहने लगा ,
"मैं इस चुप की भाषा समझता हूँ|सुनो-सुनो दुनियावालो|मैं आँखों की भाषा जनता हूँ,बांहों की बोली समझता हूँ,और जो कुछ भी लुका-छिपा है, मैं वह सब जानता हूं|". और उसी दिन से कुदरत का सारा पसारा गड़बड़ा गया...यह एक बहुत बड़ा सच है|कुछ बातें सचमुच ऐसी होती हैं,जिन्हें खामोशी की बोली नसीब होनी चाहिए....पर हम लोग,हम शायर,और अदीब उनको उस बोली में से निकालकर बाहर शोर में ले आते हैं...
जानते हो उस राजकुमारी ने फिर अपनी सखि से क्या कहा था?कहा-
"अरु!तुमने जो समझा है,उसे चुपचाप अपने पास रख लो|तुम कवि से बड़ी हो जाओ|"
" मेरा यही दर्द है की मैं कवि से बड़ी नहीं हो सकी|जो भी मन की तहों में जिया,सब कागजों के हवाले कर दिया|"
~~~ किसी तारीख को में इमरोज़ ने अमृता की पुस्तक 'जंग जारी है' से प्रस्तुत किया है...मेरे ख्याल में अमृता प्रीतम के दर्द की यह इन्तेहा रही होगी~~~