Tuesday, October 2, 2012

मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ....

बहुत सालों पहले एक कविता लिखी थी जिसमे जीवन को नदी सादृश्य कहा था मैंने अपने..शायद तब लिखी थी जब उम्र अपने अट्ठारवे वर्ष में पदार्पण कर रही थी! 

 कहते हैं जीवन की सबसे पहली पाठशाला बच्चे के माँ-पिता होते हैं..उन्होंने ही मेरी नींव में स्वतंत्रता का, स्वतंत्र सोच का, सामूहिक स्वतंत्रता का  बीजारोपण किया था| मेरे सामने स्तिथियों को पेश कर, उनके हिसाब से क्या सच है, क्या गलत बता कर अंततः मेरे निर्णय को सम्मानित करते थे! आप कह सकते हैं की छोटे से बच्चे में निर्णय क्षमता कैसी? तो निर्णय तो ढेरों बातों के हो सकते हैं...मात्र जीवन के बड़े क्षणों के नहीं अपितु छोटी छोटी बातों के निर्णय हो सकते हैं ...और यही बातें होती हैं जो इंसान में विश्वास पैदा करती हैं! ये बातें भले ही छोटी हो, उस बच्चे में किसी बात को आगे बढ़कर जीतने का जज़्बा पैदा करती हैं!

कयी दफा ये भी होता है कि कुछ बच्चे जीतने को 'छीनना' समझने की भूल कर बैठते हैं..गौरतलब है की यदि आप अपने बच्चे में ऐसी किसी भावना का जन्म होते देखें तो उसे तुरंत उसके बारे में समझा बूझाकर सच्चाई से अवगत करवाएं!

खैर तो बात शुरू हुई थी नदी सादृश्य जीवन जीने को लेकर..सच में नदी जैसा जीवन ही तो होता है हमारा...कभी चट्टानों से नीचे गिरता तो कभी शांत निर्मल , पठार पर अपना फैलाव बनाता! कभी कभी तो उसे विषम परिस्थितियों में भी खुद को संभाल लेना पड़ता है क्योंकि,किनारे तो बस...किनारे ही होते हैं!! जीवन भी तो ऐसा ही है..वे क्षण जो अप्रत्याशित रूप से आपको कहीं नीचे लुढका देते हैं या आपको दो कदम पीछे लेने को मजबूर कर देते हैं..ये वो ही क्षण होते हैं जिनमे अक्सर आप आत्मिक, मानसिक रूप से बल पाते हैं..नए निश्चय और नए पयाम ढूँढते  हैं! फिर इन नए संकल्पों से अपने अगले पड़ाव की ओर बढ़ते हैं! इसे ही कहते हैं, नदी सादृश्य होना...वक़्त के संग बहते जाना!  

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के एक ख्यातनाम पब्लिक रिलेशंस विषय के ज्ञाता व् लेखक, स्टीफेन मेनेलक हमारे यहाँ सिम्बायोसिस में व्याख्यान देने  आये थे| उनका मानना था की भारतीय संस्कृति ने उन्हें एक बहुत बड़ी बात सिखाई है और वो है, 'गो विद द फ्लो' अर्थात जैसा वक़्त आये, उसके संग संग बहो..शायद वे भी इस बात को माने की नदी सादृश्य ही जीवन हो!

व्यापार में भी हमें इसी संकल्पना का बोध होता है! व्यापार करने वाले सभी लोग जानते हैं की व्यापार में  लाभ और विकास कभी साथ साथ नहीं होते| लाभ की अवधि में आपको सिर्फ लाभार्जन में लगना पड़ता है और सही समय में, जागृत होकर विकास की तरफ ध्यान देना  पड़ता है...
लाभ के दौरान आप सीढियां चढ़ते हैं और विकास के दौरान  आप किसी पठार-सम स्तिथि में अपना अंतर-बाह्य अवलोकन कर आने वाले समय की सिलसिलेवार योजना में जुट जाते हैं...जीवन, समाज, व्यापार...हर जगह, हर दौर में उतार-चढ़ाव लगे रहते हैं ..जरुरत है तो बस नदी सादृश्य बहते रहने की!

 स्त्री को बार-बार बाँधों में बाँध देने की, उसके आजू-बाजू बागड़ लगा देने की या उसके पैरों में जंजीरें बाँध देने की घटनायें अलग अलग तरह से आज भी सर उठाती रहती हैं! काम काजी स्त्रियों को उनके दफ्तर या काम के स्थान पर,  घरेलू स्त्रियों को घर-बाहर-रिश्तेदारों में , कभी  गाँव की पंचायत के सामने तो कभी अपने ही बेटों के समक्ष! लेकिन स्त्री अब कहीं नहीं रुकेगी..वो रुक ही नहीं सकती..वो स्वयं नदी है..स्वतंत्र है..वो चाहती है की उसके जीवन का आवेग अब कभी न थमे! कुछ लोग कभी -कभी उसकी राह रोक लेते हैं/होंगे..लेकिन वो इतने भी बड़े नहीं होते की उसे नदी से झील बना दें!

कुछ वर्षों पूर्व शुभा मुद्गल जी ने 'मन के मंझीरे' नामक गीतों के  संकलन में एक गीत गया था, 'मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ"!'मन के मंझीरे' , इस संकलन के सभी गीत , स्त्री को संबल देने हेतु लिखे गए थे...उसे बुद्धिमान,सशक्त,आत्मावलम्बी,स्वाभिमानी बनाने के लिए साथ ही  स्त्री के प्रति दासता-विरोध दर्शाते गीत हैं! 

आप सभी के लिए ये गीत जिसे प्रसून जोशी जी ने  लिखा है...

मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ..
अब चाहती हूँ बहना, बौरा गयी हूँ !
जो भी यहाँ आता है, खामोशियाँ लाता है..
सुलझे हुए लोगों से तंग आ गयी हूँ 
मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ..
अब चाहती हूँ बहना, बौरा गयी हूँ !

उस रोज़ एक लड़की मुझको जगा रही थी,
चुन चुन  के गोल पत्थर, लहरें बना रही थी 
कुछ उँगलियाँ उठी और ख़ामोश हो गयी 
वो बल खा रही थी , अब मैं गश खा गयी हूँ 

इस चाँद को तो देखो, मुझमें ही झाँकता है 
अपने लबों को सीकर , हर रात काटता है 
कमबख्त ने कभी भी 
 इक बात तक नहीं की 
धरती की अंजुली में घबरा गयी हूँ!

पानी का एक सच है, वो सच है बहते जाना
रस्तों को छोड़ देना, रस्ते नए बनाना..
चाहा नहीं था मैंने, मैं रोकी गयी हूँ!
मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ..
अब चाहती हूँ बहना, बौरा गयी हूँ 
जो भी यहाँ आता है, खामोशियाँ लाता है..
सुलझे हुए लोगों से तंग आ गयी हूँ
मैं झील हूँ, उकता गयी हूँ.....

(ये गीत प्रसून जोशी जी ने  लिखा है)
इसे आप यहाँ सुन सकते हैं:
http://www.dhingana.com/hindi/shubha-mudgal-mann-ke-manjeere-songs-shubha-mudgal-pop-3f945d1

5 comments:

Anonymous said...

Very descriptive post, I loved that bit. Will there be a
part 2?
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ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर.....
प्रसून जी का गीत भी प्यारा...

आभार
अनु

Anonymous said...

प्रशंसनीय प्रस्तुति

Kavita Rawat said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति..

Kavita Rawat said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति..