दो रोज़ हुए
शाम ढले,
शायद आखिरी --
काले घन,
चपला संग
आँख मिचौली खेलते हैं!
आज कचनार के ऊपर
जलधर का जमावड़ा था!
भादों बीत चला,
समीर ने हौले से गाया था--
आश्विन देखते देखते धूप चढ़ जायेगा...
कार्तिक की गुलाबी सुबहें फिर आयेंगी!
इस वसुंधरा को देखो,
हर ऋतु में सजती है...
बदलाव ही नियम है जीने का..
खुद सह कर भी सिखाती है!
दो रोज़ हुए
शाम ढले,
शायद आखिरी --
काले घन,
चपला संग
आँख मिचौली खेलते हैं!
~~स्वाति-मृगी~~
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