अज्ञेय के ऊपर आभिजात प्रेम-कवितायेँ लिखने का आक्षेप लगता रहा है--और यह भी की अंत तक उनमें "अहम्" का भाव सर्वोपरि रहा! उनके विचारों से मतभेद रखने वालों ने इससे भी कटु बातें कही हैं लेकिन अज्ञेय से प्रेम करनेवालों ने उनकी प्रेम कविताओं से एक बात जरुर सीखी है कि --प्रेम में देना ही सब कुछ है, लेना तो प्रेम में आता ही नहीं! जो कुछ मेरा है वो मैं तुझे देता हूँ, ओ मेरे प्रियतम....इस भावना को जिसने समझ लिया वो सच में इस प्रेम-सिन्धु को तर गया!!
इसी भाव से ओत-प्रोत अज्ञेय की ये कविता--
"जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हे दिया है" आप सभी के लिए!
जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हे दिया है
उस दुःख में नहीं जिसे बेझिझक मैंने पिया है |
उस आह में नहीं जिसे मैंने तुमसे छुपाया है|
उस द्वार से गुजरो जो मैंने तुम्हारे लिए खोला है
उस अन्धकार से नहीं जिसकी गहरायी को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की भावना से टटोला है|
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा,
वे काँटें-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ,चुनूँगा|
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ,बनाता रहूँगा,
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँ
सागर के किनारे तक
तुम्हारे पहुँचाने का
उदार उद्यम मेरा हो :
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो,तुम्हारा हो,तुम्हारा हो!
~~अज्ञेय~~
(अरी ओ करुणा प्रभामय/सदानीरा, भाग-१)
No comments:
Post a Comment