Wednesday, June 17, 2009

उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख


उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख

रास्ते के मुसाफिर, अब नए शहर की ओर देख


ये रिश्तों के घाव हैं, न भर पायेंगे आसानी से

इक बार और चल, मलहम तो लगा के देख


मैंने वो कंगन नर्मदा में तिरा दिए.......

कहा था जिनके लिए तुमने, एक बार पहन के तो देख


खिलौनों सा तोड़ डाले है मुझे,फिर भी,

मन कहे,तो क्या?इंतज़ार, वही, और देख


मैंने चाहा था जिसे टूट कर कभी, सालों बाद वही--

बेवफा,अब ज़िद करता है..सिर्फ उसी को देख


तेरे इश्क का सदका खुदा से भी बढ़कर माना था

सारी खुदाई ही से लेकिन,अब इश्क हो गया देख!!


उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख

रास्ते के मुसाफिर, अब नए शहर की ओर देख

~स्वाति -मृगी ~

१४ जून २००९