Wednesday, June 17, 2009

उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख


उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख

रास्ते के मुसाफिर, अब नए शहर की ओर देख


ये रिश्तों के घाव हैं, न भर पायेंगे आसानी से

इक बार और चल, मलहम तो लगा के देख


मैंने वो कंगन नर्मदा में तिरा दिए.......

कहा था जिनके लिए तुमने, एक बार पहन के तो देख


खिलौनों सा तोड़ डाले है मुझे,फिर भी,

मन कहे,तो क्या?इंतज़ार, वही, और देख


मैंने चाहा था जिसे टूट कर कभी, सालों बाद वही--

बेवफा,अब ज़िद करता है..सिर्फ उसी को देख


तेरे इश्क का सदका खुदा से भी बढ़कर माना था

सारी खुदाई ही से लेकिन,अब इश्क हो गया देख!!


उम्र की दहलीज़ पर एक ख्वाब और बुन के देख

रास्ते के मुसाफिर, अब नए शहर की ओर देख

~स्वाति -मृगी ~

१४ जून २००९


7 comments:

Smart Indian said...

सुन्दर और मार्मिक - शायद यही आपकी रचनाओं की पहचान भी है.

Sanjay Shukla said...

बहुत उम्दा.

ज़िगर का एक शे'र आपकी इस नज़्म के नाम :

शौक़ को रहनुमा बना जो हो चुका कभी न देख
आग दबी हुई निकाल आग बुझी हुई न देख.

appu said...

good and very fresh...deep in thought...

अमिताभ श्रीवास्तव said...

अच्छा लिखती हैं आप। ख्वाब और नई दिशाये देखते रहने, उस पर चलते रहना ही इंसानी प्रगति है। रिश्ते, यानी बन्धन, बन्धन जितने भी होते हैं घाव देते ही हैं..क्योंकि उनसे अपेक्षायें जुड जाती हैं, अपेक्षायें करना ही दुख को आमंत्रण देना होता है सो हम यदि सचेत हैं तो मलहम लगाना ही होता है।
"मैने वो कंगन......." बहुत मर्मिक पंक्तियां है ये। प्रेम के अंतर्मन को सम्झना और उसे लिखना सचमुच कठिन होता है मगर आपकी कलम ने इसे साकार किया है। अच्छी लिखती है मगर बहुत कम यानी लेट लतीफ है आप, लिखती रहे, पाठक हों या न हों, लिखना बेहतरी है, पढना उससे भी बेहतर मगर यह पाठक के सोचने की बात है..., आप लिखती

अमिताभ श्रीवास्तव said...

* आप लिखती रहें।

Dr Swati Pande Nalawade said...

अमिताभ जी, आपका बहुत धन्यवाद जो इस रचना को पसंद किया| जी ये तो सत्य है कि मै काफी काम लिखती राही इन दिनो लेकिन अब आपसे प्रेरणा पाकर पुनः कलम को नये आयाम दूंगी! सादर धन्यवाद!

Nishant... said...

khoobsurat