क्या हुआ फौजी,
मेरे दोस्त
अब वो पहले वाली बात ना रही?
या की तुमको हमारी याद ही ना रही?
अक्सर सोचती हूँ और हो जाती हूँ
गुमसुम....
कि
तुम्हारे प्यारे से चेहरे पर कोई झूठ नहीं फबता
और मेरे दिल की किनारों पर सच की झालर लगी है....
हमारे मध्य
शायद,
सिर्फ ये
द्रास की वादियाँ ही टँगी हैं
कि
तुम कैसे हो?
क्या करते हो?
इस दुनिया से अलग-थलग
उन गहरी बर्फानी बैरकों में
सारा दिन निकालते हो......
फिर हर रात भारी-से कश्म-कश को ओढे
नये सवेरे को तलाशते हो?
कि
अपने कदमों की आहट
नहीं सुन पडती जिस दिन,
बहुत परेशान हो जाती हूँ मैं......
सुना है,
तुम्हें तो वहाँ,
उसकी भी इज़ाजत नहीं होती,
कैसे अपने दिनों को तारीख का नाम देकर
बन जाते हो एक नयी तारीख
तुम...
कि
छूता है क्या कभी
किसी के आँचल का मलमली एह्सास?
उँगलियाँ अक्सर,
ढूँढती होंगी कोई मुडी हुइ तस्वीर?
होठों पे एक हंसी आकर,
वही ठहर जाने की जिद करती होगी?
दोस्त,
अक्सर गुमसुम
अपनी शामों में
तुम्हें ढूँढती हूँ...
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