Tuesday, September 27, 2011

लौट आती हूँ अक्सर...


लौट आती हूँ अक्सर

कि उकता जाती हूँ मैं-
फिर उन्हीं शब्दों के इस्तेमाल से !
बेवजह के झूठ अब स्फटिक से दिखाई दे जाते हैं
एहसासों के दरीचे तले
रौंधे जाते हैं
अनगिनत चाहतों के सिलसिले
और फिर भी तुम कहते हो,
बहार आयी है?


मैं,
बस इक मौन--
जूही की बेल में घोंसला बनाती
मैना को
आते जाते देखती हूँ !
कितनी हर्षित है उसकी हर उड़ान
फिर, अपनी हाथों पर खींची
आडी  तिरछी लकीरों को देख ,
लौट आती हूँ अक्सर
कि उकता जाती हूँ मैं


नाकाम ही सही,
इक कोशिश तो थी !
सधे हुए कदमों में ,
इक जुम्बिश तो थी!
पर अब,
लाचार पंखों में परवाज़ देख --
लौट आती हूँ अक्सर ,
कि उकता जाती हूँ मैं!



कि उकता जाती हूँ मैं !

पेंटिंग सौजन्य: डोमिनिक तेलेमोन

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