एक तनहायी शहर की थी,
मेरी,
एक मुझमें भी ,
अक्सर --
जाने क्या कुछ बोला करती थी!
शामो-सहर कमबख्त,
मुझसे,
दोनों मिलकर --
जाने क्या करने को ,
कहा करती थी !
फिर एक रोज,
भीड़ का हिस्सा बन, सोचा,
तन्हायी को आबाद करूँगा,
तनहा लोगों की बातों में आकर
खुद को बहलाऊँगा!
मैंने पाया भीड़ ने, तब
मुझको
सहलाया और दुलराया था
अपने संग पाकर
कुछ जश्न-सा भी मनाया था !
लेकिन तन्हायी का भी
अपना
एक उसूल होता है
भावों संग खेलकर
गूंगा - बहरा हो,
चुप्पा लगा जाता है !
उसूल पसंद तन्हाई ने
आखिर
अपना रंग दिखा दिया,
वो जो शहर था ,मुझमें –
बस गया ...
वो जो मैं था ,
गुम गया !
~स्वाति-मृगी~
९ जुलाई २०१३
(पेंटिंग साभार : बेट्टी पेन्नेल )
मेरी,
एक मुझमें भी ,
अक्सर --
जाने क्या कुछ बोला करती थी!
शामो-सहर कमबख्त,
मुझसे,
दोनों मिलकर --
जाने क्या करने को ,
कहा करती थी !
फिर एक रोज,
भीड़ का हिस्सा बन, सोचा,
तन्हायी को आबाद करूँगा,
तनहा लोगों की बातों में आकर
खुद को बहलाऊँगा!
मैंने पाया भीड़ ने, तब
मुझको
सहलाया और दुलराया था
अपने संग पाकर
कुछ जश्न-सा भी मनाया था !
लेकिन तन्हायी का भी
अपना
एक उसूल होता है
भावों संग खेलकर
गूंगा - बहरा हो,
चुप्पा लगा जाता है !
उसूल पसंद तन्हाई ने
आखिर
अपना रंग दिखा दिया,
वो जो शहर था ,मुझमें –
बस गया ...
वो जो मैं था ,
गुम गया !
~स्वाति-मृगी~
९ जुलाई २०१३
(पेंटिंग साभार : बेट्टी पेन्नेल )
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