Sunday, April 20, 2008

किसी दौर वो संग चला था..

अक्सर गिर जाता है पत्ता राह गुजर पे

शाखों से फिर कहाँ वास्ता रख पाता है?

गमों को वो किस कदर छुपाता होगा

दोस्त , जो किसी राह पे मुड़ जाता है?

किसी दौर वो संग चला था मेरे कभी,

सोच के ये कहाँ ,हमनवा बन पाता है?

मेरा माज़ी भी कम्बख़्त, खुदा-सा,

मुझे आज भी जीना सीखा जाता है!

~स्वाति~२० एप्रिल २००८

1 comment:

Unknown said...

बहुत सुन्दर कविता लिखती है आप,