अक्सर गिर जाता है पत्ता राह गुजर पे
शाखों से फिर कहाँ वास्ता रख पाता है?
गमों को वो किस कदर छुपाता होगा
दोस्त , जो किसी राह पे मुड़ जाता है?
किसी दौर वो संग चला था मेरे कभी,
सोच के ये कहाँ ,हमनवा बन पाता है?
मेरा माज़ी भी कम्बख़्त, खुदा-सा,
मुझे आज भी जीना सीखा जाता है!
~स्वाति~२० एप्रिल २००८
1 comment:
बहुत सुन्दर कविता लिखती है आप,
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