Friday, September 28, 2012

मिटटी का पुतला , मिटटी में मिल गया!


पार्वती-पुत्र 
जब मिटटी से बन कर आया,
माँ की रक्षा हेतु,
पिता से भी युद्ध किया!
सृष्टि के समस्त गुणों से संपन्न
जन-जन के दुखों को दूर किया!
हर घर-घर में,
मिटटी से बन कर था आया,
हम सब के संग संग
सारे सुख दुःख था जिया!
पूड़ी-कचौड़ी, हलवा-खीर,
श्रीखंड-पूरण पोली सब खाया!
बच्चों संग खेला,बड़ों के आँसू पोंछे,
हमारे प्रेम में जो है नहाया!
रहा पूरे दस दिन जैसा हमने रखा..
बदले में साल भर का इन्तेजाम करता गया..
जाते हुए याद दिलाया, है सब कुछ नश्वर, मिट जाना है...
मिटटी का पुतला , मिटटी में मिल गया! 

~~स्वाति-मृगी~~


Thursday, September 27, 2012

दिल चाहता है !!




दिल चाहता है , आज,
तुम्हारे हाथों को थाम
नर्मदा मैय्या की
परिकम्मा कर आऊँ  मैं...

दिल चाहता है आज,
 तुमपे --
अपना सब कुछ लूटा दूँ  मैं!

मैंने,
मेरा मैं तुझे दिया--
ले आज मैंने,
अपना सब कुछ उतार फेंका
और इस रूह का दरवाज़ा खोल
तुझे भीतर भर लिया!

दिल चाहता है,आज--
चन्दन तिलक से सजा कर,
तुझे फिर से
अपना 
खुदा बना लूँ  मैं!




नव्या में प्रकाशित येही कविता :



बीहड़ और प्रेम..



तुम कहते हो की 
मैं तुम्हारे जीवन की 


सबसे अनमोल नेमत हूँ!
और ये भी की
तुम्हारे जीवन में सिवा अँधेरे के
कुछ नहीं है
इसलिए तुम्हें भूल जाऊं--

एक दफ़ा देखो तो
इस चेहरे में तुम्हें 
मोहब्बत की लौ दिखेगी!
ये दीवानगी नहीं 
ये सिर्फ रस्म-ओ-उल्फत की बातें भी नहीं!

बहुत पाकीज़ा चाहतों के सिलसिले
अक्सर 
कहाँ पूरे होते हैं?
सवालों के दायरे में सिमटे तुम...
रूह की क्या कैफियत माँगते हो?

मुझे नहीं मालूम की तुम कैसे दिखते हो
मैंने अब तक तुम्हे छुआ ही कहाँ?
वो श्यामल आँखें 
अब तलक,
नज़रबंद हुई ही कहाँ?

मुझे तो तुम्हारी आवाज़ का उतार चढ़ाव भी नहीं मालूम!
जब तुम मेरा नाम पुकारोगे,
नहीं जानती वो सिहरन कैसी होगी !!

लेकिन बस इतना जानती हूँ
की 
इक रोज़ 
हम दोनों के दरमियां
ख़त्म होंगी ये दूरियां 
जब, 
चाय की प्यालियों में
ढूँढेंगे हम जीवन के कुँहासे को!
जब,
कोयल गायेगी गीत मधुर 
और खेतों में सरसों लहलहाएगी!
तब ,
मैं धानी चुनर ओढ़े,
लाल चूड़ीयाँ पहने,
तुमसे जरुर मिलूँगी!!

क्योंकि,
ज़िन्दगी चाहे 
अँधेरी हो,
भयावह हो,
बीहड़ सी हो.....
प्रेम स्नेह और तपस्या ही 
उसकी असली नेमत है!
और मैं तुम तक
तुम्हारी नेमत जरुर पहुँचाऊँगी


~~स्वाति-मृगी~~

नव्या में २६ ऑगस्ट २०१२ को प्रकाशित : 
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B9%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE.html



एक ख़त मेरी दोस्त वर्षा मिर्ज़ा के नाम!

वर्षा भम्बानी, मेरी बचपन की सबसे प्यारी दोस्त,जो जीवन की  आपा -धापी में जाने कहाँ  गुम  हो गयी थी..फेसबुक की बदौलत मुझे २५ सालों बाद फिर मिली! उसे फेसबुक  पर २ मार्च २०११ को लिखी  इस चिट्ठी पर जब आवेश तिवारी जी की नज़र पड़ी तो उन्होंने इसे १० मार्च २०१२ को नेटवर्क ६ पर छापा! पश्चात इसने नव्या पर भी स्थान प्राप्त किया! दूर दराज़ से लोगों ने लिख के/मेल से/फ़ोन द्वारा बताया की कैसे उन्होंने भी इस ख़त द्वारा अपना बाल-पन जिया...

आइये पढ़िए, मेरा ख़त, मेरी दोस्त वर्षा भम्बानी मिर्ज़ा के नाम... 





वर्षा , मेरी  बाल   सखि , बचपन  की  सबसे  प्यारी  दोस्त ! तू कैसी है? रात देर  जबसे तेरा प्रोफाइल देखा है, मैं तो सुद-बुध ही भूल गयी हूँ! तबसे लेकर अब तक जाने कित्ती बार ३० एनेक्स विष्णुपुरी से तेरे घर के चक्कर लगा रही हूँ! लिखने लगी तो लिखती ही गयी...सोचा तुझे नोट ही लिख डालूं...तुझे ये सब याद है ना?   देख तो याद आता है क्या.....


कि  तेरे  संग  मेरे  नन्हे  क़दमों ने लंगड़ी खेलना सीखा, गिरना सीखा और गिरकर फिर उठना भी सीखा! गरमी के दिनों में भर दुपहरी में हम खुराना अंकल के घर के  पीछे वाले जंगल में पम्मी दीदी के संग  खजूर के पेड़ों से ठूंट भर खजूर तोड़ने उन काँटों भरे जंगलों में जाते  थे! कच्चे कच्चे पीले खजूर खुद खाकर तू मुझे लाल मीठे वाले दे देती थी! हमारा वो छोटा वाला, तेरे घर के पड़ोस का मैदान जहाँ हम हर शाम  छे बजे तक  खूब हुडदंग मचाते थे, मंजूषा और कविता कापसे को खूब हराते थे...छुपा छुपायी खेलते वक़्त प्रधान साहब के घर के ओसरे में छुप जाते थे और उनके घर के अन्दर से भौंकने की आवाज़ सुन डर के भाग जाते थे! कित्ती बातें याद दिलवाऊ  तुझे मेरी दोस्त?? मुझे यकीन है की तुझे भी ये सब याद होगा ही!


पिपल्या-पाला याद है न? जामुन तोड़ने इसी मौसम में जाते थे..कित्ती बार चोरी छुपे गए थे...पीछे वाले ताल में तैरते कमल के फूलों ने कित्ती बार हमारे मन को हुल्साया था! और हमारी साइकिलें? उनकी सवारी!! हा हा कित्ती बार तो गिरते थे, कित्ती बार घुटने छिले और अनगिन बार कोहनियाँ भी, लेकिन हम तो अपने में ही मस्त रहते थे! तुझे वो कुआँ याद है जिसमें अक्सर पानी कम ही रहता था लेकिन उसके ऊपर आम के पेड़ की डालियाँ आ जाती थी और जिसपर हर साल सावन में झूला पड़ता था तब हम दोनों ही पार्टनर होती थी और ये लम्बी लम्बी पेंगें भरती थी....क्या जीवन अब भी तुम्हे उतनी ही लम्बी पेंगें भरने की इजाजत  देता है वर्शु? होली वाले दिन याद हैं? हम लोग एक हफ्ता पहले और एक हफ्ता बाद तक होली खेलते थे...विष्णुपुरी में अक्सर नए घर बना करते थे उन दिनों...तब उनकी टंकियों में जो होली खेली जाती थी...उसका क्या मज़ा था!!


 मेरे जीवन की वो आठ अद्भुत होली थीं! वहाँ से जाने के बाद , जीवन में फिर मैंने कभी होली नहीं खेली--खेली भी होगी तो बड़े रस्मी तौर पे! गिल्ली डंडा खेलना याद है?

 कीते झगडे कित्ते गुस्से फिर कित्ती 
मनवाइयां! कित्ती बार तो गिल्लियां घुमाई होंगी और इन्द्रपुरी जा जाकर उन्हें  बनवाया करते थे
आधी से ज्यादा तो वो गुप्ते साहब की बागड़ में ही घूम जाती थी..हा हा हा! उनका सुपुत्र नचिकेत याद है? 
चश्मीश !! तू उसे क्या कहती थी याद है?हा हा...यहाँ  नहीं लिखूंगी :)













मेरे बाल्य जीवन के कटु-मधु  क्षणों की साथिन, मैं क्षमस्व हूँ कि जीवन के उस मोड़ से (जहाँ हम बिछड़  गए थे ), अब तलक, मैं तेरे साथ नहीं थी!
लेकिन अब...तुझसे इतनी बात करना चाहती हूँ की समझ नहीं आ रहा  कि कहाँ से शुरू करूँ? इस ख़ुशी को
कैसे ज़ाहीर करूँ? जाने कहाँ कहाँ तेरे बारे में पूछती थी लेकिन तू कहीं मिल न सकी| ये ख़त उन सारे सालों की पूर्ति नहीं कर सकता..कर भी नहीं सकता! लेकिन फिर भी सोचती हूँ कि तुझे बताऊँ कि मैंने तुझे कितना मिस किया!  मेरे जीवन में तूने तब प्रवेश किया था जब मैं नितांत  अकेली थी...माँ जबलपुर में रहती थी और पापा हमेशा टूर पे! मेरे दिनों को तूने जैसे पंख दिए थे!  हँसी दी, ख़ुशी दी, गीत दिए, मिठास दिया,जीवन को मनो स्पंदन दिया| हम दोनों हाथ में हाथ डाले छत  पर बैठ कर गपियाते थे...खूब लड़ी 
मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी गाते थे! 



 याद है,  मैं रोज़ शाम को तेरे घर से वापस आना नहीं चाहती थी! और बाकी के दिन तू मेरे घर से वापस जाना नहीं चाहती...आज मैं फिर अकेली हूँ दोस्त, माँ पापा के जाने के बाद..........!
पिछले दिनों इंदौर में थी तब तेरे बारे में पता पड़ा था कि तू जयपुर में है, पता नहीं था कि तू इत्ती बड़ी शायरा और लेखिका बन गयी है...सच मान तुझे देख कर, तेरा रुतबा देखकर खूब ख़ुशी हो रही है....चल बहना, एक बार फिर बचपन में लौट चलते हैं..बड़े होने में कुछ मज़ा नहीं! जल्द ही मिलने के वादे के साथ..तेरी स्वातु!

क्या ये ख़त यहीं ख़त्म हो जायेगा? आप जानना नहीं चाहेंगे की वर्षा ने इसे पढ़ कर क्या जवाब दिया होगा? तो पढ़िए वर्षा मिर्ज़ा जी का जवाब:

स्वाति मेरी दोस्त बस इस वक़्त मेरी आँखें नम हैं....तूने तो उन गलियों की सैर करा दी जो मैं भूल चुकी 

थी....वे बातें याद करा दी जिन पर समय नामक परत की मोटी धूल जम चुकी है...वह गन्ने ka रस जो 

हमारे साथ हो जाने भर से मीठा हो जाता था....वह कुआँ, जामुन,खजूर,होली के गुब्बारे ,गिल्लियां सब याद 

आ रहा है लग रहा है जैसे में बहुत अमीर होऊं...तेरी शोभा काकू भी जिनके साथ हम badminton खेलते 

थे.मुश्किल है कि आज मैं भी विष्णुपुरी के ३० और ४७ के चक्करों से मुक्त हो पाऊँ...कविता मंजूषा कहाँ हो 

तुम ? तेरे मीठी चिट्ठी के बारे में सपना ने मुझे बताया... ऑफिस ka सारा काम छोड़ तुझे पढने-लिखने 

baith गयी हूँ ...अंकल-आंटी बहुत याद आ रहे हैं...

और हाँ शायरा-वायरा कुछ नहीं एक निर्वात-सा है जिसे भर देना चाहती हूँ या जिससे बहुत गहरा नाता है 

उसे याद करने ka जरिया भर है... लिखती तो तू मुझसे ज्यादा अच्छा है..और हाँ बड़ा होना बदमजगी है 

मेरी दोस्त. जल्दी मिलेंगे विदा .


नव्या पर प्रकाशित मेरा ये ख़त : 



नेटवर्क ६ पर प्रकाशित मेरा ये ख़त:

सेमल के पेड़ पर अटकी रात

कल रात तलक ,
सियाह से आसमान पे
एक नाम लिखा रह  गया था
दिल के आईने में किसी का प्यार,
रुसवाइयों के मंजर दिखा गया था!

लेकिन आज की शब्
बड़ी खुबसूरत है...

तुमने तो ,
सोलह कलाओं से सज्ज चाँद की तरह,
कह दिया--
सब कुछ!!
मूँद कर अपनी पलकों को...
मैं, लेकिन
अब क्या कहूँ आगे?
सुनो
आज--
ये जो रात है,
ये पिछले आँगन में
सेमल के पेड़ पर अटक गयी है
और
ये मदमस्त 
चाँद है की
 देख रहा है-- 
 टुकुर टुकुर
मेरी  ही ओर 

और,
 मैंने
आज,
बहुत सालों बाद,
फिर एक बार 
खिड़की के पल्ले,
खोल दिए हैं! 

सुनो
आज--
ये जो रात है ना,
सेमल के पेड़ पर अटक गयी है!!

छायाचित्र : गूगल से साभार 
'नव्या' पर मार्च २०१२ में प्रकाशित : 
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%AA%E0%A4%B0-%E0%A4%85%E0%A4%9F%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A4.html

मिट्टी सा तन, सौंधा हुआ जाता है









तेरी बाँहों में शमा सी पिघलती मैं
और तू सीने तक मिश्री सा घुला जाता है

तेरा कानों को हौले से कुतरना
मुझे हर पल दीवाना बनाया  जाता है

तेरी महक लेकर रात अभी-अभी सोयी है
कलियों पर कोई हरसिंगार बिखेर जाता है 

मेरे अधरों पर किसी  गीत सा लरज़ता
तेरी गर्म साँसों का निशाँ हुआ जाता है

एक दर्द भरी  गुदगुदी   और आँखों में नमी सी
आज मिट्टी सा तन यूँ  सौंधा हुआ जाता है।

छायाचित्र : गूगल से साभार 

'नव्या' पर मार्च २०१२ में प्रकाशित 

एक्सपेरिमेंट


"हे गार्गीकहाँ ध्यान है तेराहाथ सीधा रख..मेहंदी ख़राब हो रही है! ", सुचेता ने अपनी छोटी बहन को डपटते हुए कहा| गार्गी कल ही शाम को अपने हॉस्टल से, दून से मेरठ , अपने घर वापस आयी थी| राखी का त्यौहार है तो सभी बच्चे जो उत्तर भारत से थे, अपने अपने घरदिल्ली या आसपास के शहरों में  वापस गए थे | गार्गी का मन तो था लेकिन निशित, उसके बड़े भाई के जोर देने पर आना पड़ा था|

गार्गी को याद आया, जब माँ थी तो राखी के - दिन पहले से ही घर में उत्साह उमंग का माहौल तैर जाता था..कितनी मिठाइयाँ, नमकीन, मठरी सेंव और जाने क्या क्या बनते थे| वो और मम्मा जाकर खान मार्केट के अपने फेवरेट दुकान से सुन्दर सी ड्रेस खरीदते थे, भाई के लिए नयी शर्ट और गार्गी को उसकी पसंद की आरटीफीशियल जेवेलरी भी मिलती थी! मेहंदी लगवाने हमेशा बाबा खडकसिंह मार्ग पर गुरद्वारे के पास हनुमान मंदिर पर ही जाते थे...मम्मा कहती थी , "मैं चाहती हूँ की मेरी गार्गी की मेहंदी सबसे सुन्दर हो, इसलिए मैं तुझ पर एक्सपेरिमेंट नहीं करना चाहती|"

गार्गी मन ही मन मुस्कुरा उठी और सोचने लगी, जिस मम्मा को मेहंदी में एक्सपेरिमेंट करना पसंद नहीं था, वो मेरे लिए ढेरों एक्सपेरिमेंट छोड़ गयी है...
 
पाँच साल पहले गार्गी की  मम्मानीरू  को डॉक्टर्स ने बता दिया था की अब उसके पास ज्यादा से ज्यादा - महीने का समय है| गार्गी तब सात साल की और निशित, उसका बड़ा भाई दस साल के थे| अच्छी भलीहँसती खेलती नीरू को जब अचानक ही ये पता पड़ा तो उसके और उसके पति संजय के पैरों तले से ज़मीन खिसक गयी थी| किडनी फेलिअर का ऐसा केस जिस पर लाखों रूपया खर्च कर के भी नीरू को कितने दिन/महीने/साल की ज़िन्दगी और मिलेगी, कोई नहीं बता सकता था| नीरू ने एक-दो हफ़्तों तक बहुत सोचा और फिर संजय से कहा, "मेरी दवाएं और डायलिसिस तो शुरू ही है, उसका खर्चा तो है ही...तुम मेरी बीमारी पर और खर्चा मत करो अब! जो भी पैसा है वो बच्चों के भविष्य के लिए रखनामैं हमारे पैसे को किसी एक्सपेरिमेंट में बर्बाद नही करना चाहती!"

नीरू के पिता की काफी बड़ी फेक्ट्री थी| उसके भाई की दो साल पूर्व ही एक एक्सीडेंट में मौत हो गयी थी और पिता उस सदमे में चल बसे थे| अब बस नीरू की माँ ही थी| नीरू ने तब बच्चों के संग और ज्यादा वक़्त गुज़ारना शुरू कर दिया| नौकरी से इस्तीफा तो वो उसी वक़्त दे चुकी थी जब उसे दो साल पहले डायलिसिस  शुरू करना पड़ा था| अब वो दोनों बच्चों को ढेरों जगह घुमाने ले जाती, उनसे खूब बातें करती, उनके दोस्तों को घर बुलाती , उनकी सारी होब्बिज़ पूरी करती| गार्गी को स्विमिंग  करना बहुत पसंद था लेकिन उसे बहुत दर लगता था| वो बार बार नीरू  से कहती, " मम्मा, आप जबसे मेरे साथ स्विमिंग करने नहीं जाती हो, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता..." सुनकर नीरू ने तय कर लिया की चाहे डॉक्टर मना करे, इन्फेक्शन के चांस बढे, वो स्विमिंग जरुर करेगी| और जिस रोज़ तक नीरू को अस्पताल नहीं ले जाया गया, उसने गार्गी संग स्विमिंग करना बंद नहीं किया| गार्गी सोचती थी, "ये ऐसा एक्सपेरिमेंट था जो उसने जान बूझ कर किया..इसके पीछे के रिस्क को समझती थी और फिर भी किया..."

पूरे - महीने तक नीरू ने गार्गी और निशित के मन की तैयारी कर दी थी..वो उन्होंने समझाती, सहलाती, और बताती.."बेटा, मैं हमेशा तुम दोनों के संग रहूँगी! कभी तुमसे दूर नहीं जाऊँगी| ये तो भगवान् जी को कोई जरुरी काम गया है इसलिए तुम्हारी मम्मा को बुला रहे हैं जल्दी| तुम्हे जीवन में आगे जाकर जो भी बनना हो, तुम्हारा जो भी सपना हो, उसे पूरा करना..मैंने तुम्हारे पापा को अच्छेसे समझा दिया है..तुम्हे कभी कोई तकलीफ नहीं होगी| " गार्गी तो खैर छोटी थी, हर बात पर सर डुला देती लेकिन निशित तो बड़ा था, समझता था...माँ के मुंह से ऐसी बातें सुनकर घर से बाहर जाकर घंटों पेड़ के नीचे बैठा रोता रहता|

फिर वो दिन भी आया जब नीरू को एम्बुलैंस में दाल के अस्पताल में भर्ती करना पड़ा..गार्गी और निशित ने माँ को हाथ हिलाकर विदा किया..नीरू ने उन दोनों के सर पे प्रेम से हाथ फेरा,उन्हें चूमा..और वही चिर परिचित मुस्कान से उन्हें टाटा करते हुए कहा, "बच्चों, मेरे एक्सपेरिमेंट ख़त्म हुए, अब तुम्हारे एक्सपेरिमेंट्स की बारी है!"

नीरू के जाने के पांच-छह  माह बाद ही संजय को घरवालों की जबरदस्ती के आगे हाँ कहना पड़ा था| उसने सुन्दर दिखने वाली, गौर वर्णा माधुरी से विवाह कर लिया था| माधुरी उच्च वर्गीय परिवार की, तलाकशुदा स्त्री थी और उसे  पंद्रह साल की बिटिया थी, सुचेता! बहुत अजीब लगा था गार्गी को ये सब..निशित सिर्फ रात को सोने के लिए घर आता और सारे सारे  दिन अपनी चाची के घर ही रहता था| माधुरी ने उस घर में आकर जैसे सब कुछ अपने प्यार से और अच्छे स्वभाव से सब कुछ संभाल लिया था| गार्गी भी धीरे धीरे अपनी नयी माँ से हिल-मिल गयी थी..हालाँकि वो माधुरी  को मौसी कह कह कर ही पुकारती थी क्यूंकि जब सुचेता माधुरी को मम्मा कहती तो गार्गी के गले में जैसे कुछ अटक जाता था| निशित कुछ कह ही नहीं पाता था..वो अपने खेल में और दोस्तों के बीच गुम रहता| संजय भी साल भर में अपनी नयी पत्नी के भले स्वभाव और सौन्दर्य में अपने दुःख को  भुलाने लगा था| परिजनों ने भी  इस परिवार में लौटती खुशियों को देख  तो भगवान् का शुक्रिया किया | सब कुछ ठीक से चलने लगा था...शायद!

एक रोज़ जब गार्गी स्कूल से वापस आयी तो पाया की घर में ढेर सारे लोग इकठ्ठा हुए हैं और जश्न जैसा माहौल था| कुछ देर में उसे पता पड़ा की माधुरी मौसी कुछ दिनों बाद घर में बेबी लाने वाली है! छोटी सी गार्गी सुन के बहुत बहुत खुश थी! उसे लगा चलो घर में उससे छोटा भी कोई आने वाला हैवो सुचेता दीदी को ढूँढने  चली गयी! सुचेता घर की छत पर अनमनी सी बैठी थी..गार्गी ने कहा, "दीदी, आपको पता है, मौसी को बेबी होने वाला है..." सुचेता ने जब कहा की ,"हाँ, तुम्हारे पापा को भी बेबी होने वाला है!!" तो गार्गी के कुछ समझ ना आया की दीदी ऐसा क्यूँ बोल रही है ! उसने कहा, "दीदी, चलो नीचे, सब लोग देखो कितने खुश हैं! "  सुचेता सोच रही थी की वो अपने फ्रेंड्स को क्या कहेगी? इस उम्र में मेरी मम्मा को बेबी? फिर सुचेता ने खुद को समेटा, और गार्गी को प्यार से सहलाती हुई नीचे सभी के संग बातें करने लगी|

सिर्फ दो महीनों में इतना सब कुछ बदल जायेगा, गार्गी को पता था! माधुरी मौसी को बेटा हुआ था..."सब कहते थे वो मेरा भाई है..लेकिन जब मैंने उसे उठाना चाहा, प्यार करना चाहा तो मौसी ने उसे उठाने ना दिया!" माधुरी एक पढ़ी लिखी और बहुत भले मन की स्त्री थी...वो ऐसा बर्ताव क्यूँ कर रही है? इन दिनों गार्गी और निशित को वो पहले जैसा प्यार क्यूँ नहीं दे रही है,, ये संजय को समझ नहीं रहा था! ऐसा दुर्व्यवहार, बुरा भला कहना-करना..सब कुछ जैसे गार्गी और निशित को कहीं भीतर तक तोड़े जा रहा था! परिवार के अन्य सदस्यों ने भी जब इस बात को नोटिस किया तो तय हुआ की गार्गी को बोर्डिंग में देहरादून में रखा जाए और निशित को उसकी चाची के यहाँ भेज दिया जाये! सुचेता जरुर इस बात का विरोध करती रही और आखिर तक कहती रही की "हम सब एक परिवार की तरह क्यूँ नहीं रह सकते? मैं गार्गी का ध्यान रखूंगी!" लेकिन कोई उसकी बात मानने को तैयार नहीं था| घर से बोर्डिंग जाने  के लिए जब गार्गी निकली तो सुचेता उससे चिपट कर रोती रही थी | गार्गी के भी दिल में बस यही सवाल आता रहा..क्यूँ? क्यूँ?

आज जब सुचेता गार्गी को मेहंदी लगा रही थी तो पिछले सालों की ये बातें उसके ज़ेहन में घूमने लगी थी| फिर जब सुचेता पानी पीने के लिए उठ के अन्दर गयी तो निशित ने आकर गार्गी का मेहंदी वाला हाथ देखते हुए कहा, "अरे वाह! सुचेता दीदी ने तो बिलकुल नयी तरह की मेहंदी लगायी है तुम्हे गार्गी! जैसे कोई नया एक्सपेरिमेंट हो!"

गार्गी तनिक व्यंग से बोली, "हाँ, मेहंदी तक तो ठीक है भैया,  लेकिन  भगवान् को  भी एक्सपेरिमेंट करने के लिए हमारा  ही घर मिला था??"
निशित ने प्यार से उसके बालों को सहलाते हुए कहा, " छुटकी, याद है , माँ ने क्या कहा था? ये जीवन एक प्रयोगशाला है और हमें इसमें नित नए एक्सपेरिमेंट्स करने पड़ेंगे..."
सुनकर गार्गी ने अपने भाई को गले लगा लिया और रो पड़ी!

दूर खड़ी सुचेता ने अपनी आँख की किनोर से आंसू पोछा और दोनों को गले लगा लिया...

यह कहानी नव्या पर ६ अगस्त २०१२ को प्रकाशित हुई थी 
http://www.nawya.in/hindi-sahitya/item/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%9F.html