Thursday, September 27, 2012

एक ख़त मेरी दोस्त वर्षा मिर्ज़ा के नाम!

वर्षा भम्बानी, मेरी बचपन की सबसे प्यारी दोस्त,जो जीवन की  आपा -धापी में जाने कहाँ  गुम  हो गयी थी..फेसबुक की बदौलत मुझे २५ सालों बाद फिर मिली! उसे फेसबुक  पर २ मार्च २०११ को लिखी  इस चिट्ठी पर जब आवेश तिवारी जी की नज़र पड़ी तो उन्होंने इसे १० मार्च २०१२ को नेटवर्क ६ पर छापा! पश्चात इसने नव्या पर भी स्थान प्राप्त किया! दूर दराज़ से लोगों ने लिख के/मेल से/फ़ोन द्वारा बताया की कैसे उन्होंने भी इस ख़त द्वारा अपना बाल-पन जिया...

आइये पढ़िए, मेरा ख़त, मेरी दोस्त वर्षा भम्बानी मिर्ज़ा के नाम... 





वर्षा , मेरी  बाल   सखि , बचपन  की  सबसे  प्यारी  दोस्त ! तू कैसी है? रात देर  जबसे तेरा प्रोफाइल देखा है, मैं तो सुद-बुध ही भूल गयी हूँ! तबसे लेकर अब तक जाने कित्ती बार ३० एनेक्स विष्णुपुरी से तेरे घर के चक्कर लगा रही हूँ! लिखने लगी तो लिखती ही गयी...सोचा तुझे नोट ही लिख डालूं...तुझे ये सब याद है ना?   देख तो याद आता है क्या.....


कि  तेरे  संग  मेरे  नन्हे  क़दमों ने लंगड़ी खेलना सीखा, गिरना सीखा और गिरकर फिर उठना भी सीखा! गरमी के दिनों में भर दुपहरी में हम खुराना अंकल के घर के  पीछे वाले जंगल में पम्मी दीदी के संग  खजूर के पेड़ों से ठूंट भर खजूर तोड़ने उन काँटों भरे जंगलों में जाते  थे! कच्चे कच्चे पीले खजूर खुद खाकर तू मुझे लाल मीठे वाले दे देती थी! हमारा वो छोटा वाला, तेरे घर के पड़ोस का मैदान जहाँ हम हर शाम  छे बजे तक  खूब हुडदंग मचाते थे, मंजूषा और कविता कापसे को खूब हराते थे...छुपा छुपायी खेलते वक़्त प्रधान साहब के घर के ओसरे में छुप जाते थे और उनके घर के अन्दर से भौंकने की आवाज़ सुन डर के भाग जाते थे! कित्ती बातें याद दिलवाऊ  तुझे मेरी दोस्त?? मुझे यकीन है की तुझे भी ये सब याद होगा ही!


पिपल्या-पाला याद है न? जामुन तोड़ने इसी मौसम में जाते थे..कित्ती बार चोरी छुपे गए थे...पीछे वाले ताल में तैरते कमल के फूलों ने कित्ती बार हमारे मन को हुल्साया था! और हमारी साइकिलें? उनकी सवारी!! हा हा कित्ती बार तो गिरते थे, कित्ती बार घुटने छिले और अनगिन बार कोहनियाँ भी, लेकिन हम तो अपने में ही मस्त रहते थे! तुझे वो कुआँ याद है जिसमें अक्सर पानी कम ही रहता था लेकिन उसके ऊपर आम के पेड़ की डालियाँ आ जाती थी और जिसपर हर साल सावन में झूला पड़ता था तब हम दोनों ही पार्टनर होती थी और ये लम्बी लम्बी पेंगें भरती थी....क्या जीवन अब भी तुम्हे उतनी ही लम्बी पेंगें भरने की इजाजत  देता है वर्शु? होली वाले दिन याद हैं? हम लोग एक हफ्ता पहले और एक हफ्ता बाद तक होली खेलते थे...विष्णुपुरी में अक्सर नए घर बना करते थे उन दिनों...तब उनकी टंकियों में जो होली खेली जाती थी...उसका क्या मज़ा था!!


 मेरे जीवन की वो आठ अद्भुत होली थीं! वहाँ से जाने के बाद , जीवन में फिर मैंने कभी होली नहीं खेली--खेली भी होगी तो बड़े रस्मी तौर पे! गिल्ली डंडा खेलना याद है?

 कीते झगडे कित्ते गुस्से फिर कित्ती 
मनवाइयां! कित्ती बार तो गिल्लियां घुमाई होंगी और इन्द्रपुरी जा जाकर उन्हें  बनवाया करते थे
आधी से ज्यादा तो वो गुप्ते साहब की बागड़ में ही घूम जाती थी..हा हा हा! उनका सुपुत्र नचिकेत याद है? 
चश्मीश !! तू उसे क्या कहती थी याद है?हा हा...यहाँ  नहीं लिखूंगी :)













मेरे बाल्य जीवन के कटु-मधु  क्षणों की साथिन, मैं क्षमस्व हूँ कि जीवन के उस मोड़ से (जहाँ हम बिछड़  गए थे ), अब तलक, मैं तेरे साथ नहीं थी!
लेकिन अब...तुझसे इतनी बात करना चाहती हूँ की समझ नहीं आ रहा  कि कहाँ से शुरू करूँ? इस ख़ुशी को
कैसे ज़ाहीर करूँ? जाने कहाँ कहाँ तेरे बारे में पूछती थी लेकिन तू कहीं मिल न सकी| ये ख़त उन सारे सालों की पूर्ति नहीं कर सकता..कर भी नहीं सकता! लेकिन फिर भी सोचती हूँ कि तुझे बताऊँ कि मैंने तुझे कितना मिस किया!  मेरे जीवन में तूने तब प्रवेश किया था जब मैं नितांत  अकेली थी...माँ जबलपुर में रहती थी और पापा हमेशा टूर पे! मेरे दिनों को तूने जैसे पंख दिए थे!  हँसी दी, ख़ुशी दी, गीत दिए, मिठास दिया,जीवन को मनो स्पंदन दिया| हम दोनों हाथ में हाथ डाले छत  पर बैठ कर गपियाते थे...खूब लड़ी 
मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी गाते थे! 



 याद है,  मैं रोज़ शाम को तेरे घर से वापस आना नहीं चाहती थी! और बाकी के दिन तू मेरे घर से वापस जाना नहीं चाहती...आज मैं फिर अकेली हूँ दोस्त, माँ पापा के जाने के बाद..........!
पिछले दिनों इंदौर में थी तब तेरे बारे में पता पड़ा था कि तू जयपुर में है, पता नहीं था कि तू इत्ती बड़ी शायरा और लेखिका बन गयी है...सच मान तुझे देख कर, तेरा रुतबा देखकर खूब ख़ुशी हो रही है....चल बहना, एक बार फिर बचपन में लौट चलते हैं..बड़े होने में कुछ मज़ा नहीं! जल्द ही मिलने के वादे के साथ..तेरी स्वातु!

क्या ये ख़त यहीं ख़त्म हो जायेगा? आप जानना नहीं चाहेंगे की वर्षा ने इसे पढ़ कर क्या जवाब दिया होगा? तो पढ़िए वर्षा मिर्ज़ा जी का जवाब:

स्वाति मेरी दोस्त बस इस वक़्त मेरी आँखें नम हैं....तूने तो उन गलियों की सैर करा दी जो मैं भूल चुकी 

थी....वे बातें याद करा दी जिन पर समय नामक परत की मोटी धूल जम चुकी है...वह गन्ने ka रस जो 

हमारे साथ हो जाने भर से मीठा हो जाता था....वह कुआँ, जामुन,खजूर,होली के गुब्बारे ,गिल्लियां सब याद 

आ रहा है लग रहा है जैसे में बहुत अमीर होऊं...तेरी शोभा काकू भी जिनके साथ हम badminton खेलते 

थे.मुश्किल है कि आज मैं भी विष्णुपुरी के ३० और ४७ के चक्करों से मुक्त हो पाऊँ...कविता मंजूषा कहाँ हो 

तुम ? तेरे मीठी चिट्ठी के बारे में सपना ने मुझे बताया... ऑफिस ka सारा काम छोड़ तुझे पढने-लिखने 

baith गयी हूँ ...अंकल-आंटी बहुत याद आ रहे हैं...

और हाँ शायरा-वायरा कुछ नहीं एक निर्वात-सा है जिसे भर देना चाहती हूँ या जिससे बहुत गहरा नाता है 

उसे याद करने ka जरिया भर है... लिखती तो तू मुझसे ज्यादा अच्छा है..और हाँ बड़ा होना बदमजगी है 

मेरी दोस्त. जल्दी मिलेंगे विदा .


नव्या पर प्रकाशित मेरा ये ख़त : 



नेटवर्क ६ पर प्रकाशित मेरा ये ख़त:

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