यह कहानी सर्वप्रथम बड़े आधे अधूरे तौर पर कहीं लिख रखी थी..डायरी में ही हो शायद..तदुपरांत एक इ-पत्रिका "नव्या" पर इसे प्रकाशित करने हेतु २३ फरवरी २०१२ को भेजी थी जो शायद उसी रोज़ प्रकाशित हो गयी थी| इसको और नवीन बना कर जल्द ही पुस्तक में प्रकाशित करना है...पढ़ें यहाँ, मेरी सर्वप्रथम कहानी...
शिवली, यही तो नाम रखा था उसका -- माँ ने? बाबा ने? या फिर उस फादर ने जो उसे जाने कुमाउँ की कौनसी वाली पहाड़ी पर पड़े किस कचरे के ढेर से उठा कर लाये थे|
शिवली आज उसके, समीर के सामने हाथ जोड़े खड़ी थी.. जब सब कुछ सुन चुकी तो वो यह कहते हुए आगे बढ गयी, “आपका बहुत बहुत धन्यवाद की आपने मुझे पहचान लिया और मेरा हाल हवाल पूछा लेकिन समीरजी, अब बस इतना ही...शेष, फिर, कभी नहीं!”
"आपने मुझे अपनत्व , प्रेम दिया, मान सम्मान दिया..मैं भी शायद उस मोहपाश में बंधती चली गयी...आपसे जुडती चली गयी..बहुत खुबसूरत दिन थे वे, बड़े ही प्यारे! फादर ने जब मुझे दून में पढने भेजा था, एम्.बी.ए. करने, तुम तब एन.डी.ए. के दूसरे वर्ष में थे- है न ? और फिर वो दिन भी आया जब तुम्हारा दून में रहने का आखिरी दिन था..तुम चेन्नई जाने वाले थे अपने ट्रेनिंग के सिलसिले में| उस साल पहाड़ी पे वसंत ने बुरुंश के सुन्दर लाल चटक फूलों से जैसे आसमान पर सेज सजा दी थी..मैंने अपने हॉस्टल के बागीचे से तोड़ कर उन्ही फूलों का एक गुच्छा तुम्हारे लिए बनाया था! मैं दौडते हाँफते जब तक तुम्हारी जीप के पास पहुँची, तुम अपने दोस्तों के साथ जीप में बैठ चुके थे..मैंने लगभग दौडते हुए तुम्हे वो फूल पकडाए थे..तुमने वादा किया था की तुम मुझे रोज़ फोन करोगे, मुझे ख़त लिखोगे और जल्दी ही मुझे अपनी दुल्हन बना के अपने साथ ले जाओगे! फादर ने मेरे हाथों में जब तुम्हारा पहला ख़त पकडाया था, मेरे भीतर सैकड़ों बुरुंश के फूल एक साथ मह-महा उठे थे ..ख़त खोला तो तुमने सिर्फ दो पंक्तियों में कहा था, 'शिवली, तुम्हारी जगह शेवंती ने ले ली है.. मेरे घर पहुँचने से पहले ही सब कुछ तय हो चुका था--मेरे पेरेंट्स ने कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी मेरे लिए!'
तब मैंने सोचा, क्या पेरेंट्स ऐसे होते हैं? मुझे अपने अनाथ होने पे, पहली दफा, कुछ अजीब सी ख़ुशी हुई!
फिर जाने कितने युगों बाद (शायद दस साल..बाद), आज तुम यूँ अचानक मुझे नैनी झील के किनारे खड़े मिल गए..अचानक! और मैं औचक-सी..तुम्हे देखती रह गयी थी..है न? तुम्हारे हाथों में एक छड़ीनुमा चीज़ थी जिसके सहारे तुम खड़े, बड़े कमज़ोर दिख रहे थे -- ग्लेशिअर्स में हवाई-सेवा के दौरान तुम्हारे हाथ-पैर की उंगलियाँ गल जाने की वजह से तुम्हे रिटायरमेंट लेना पड़ा था! अब तुम किसी कंपनी में, पटना में, एडमिनिसट्रेशन का काम संभाल रहे थे| शेवंती नए युग की महिला थी,रिश्तों में जुडी तो थी लेकिन बँधी नहीं थी-- वो गोवा के किसी पञ्च सितारा होटल में बड़ी पोसिशन पे कार्यरत थी और तुम्हारे बच्चे दून में पढ़ रहे थे| शायद तुम उन्ही से मिलने आये थे...
और मैं? मेरी जिंदगी बहुत सुन्दर थी-- मिशन स्कूल के पिछले बागानों में मैंने बुरुंश के बड़े बड़े बगीचे लगवा दिए थे और उनके फूलों से बनाये स्क्वेश व आर्किड के फूल व अन्य वस्तुओं का मेरा एक्सपोर्ट का बिजनेस इधर खूब चल पड़ा था | मैंने आंध्र प्रदेश में एक पूरे गाँव को अदोप्ट कर लिया था, दून, नैनी आदि जगहों पर भी काफी जन जागरण के नए कार्य चलते ही रहते थे!
मैं अपने जीवन से बेहद खुश थी! लेकिन तुम, आज फिर मिल गए और .तुमने मुझसे कहा, "शिवली, मुझे सब कुछ मिला लेकिन प्रेम नहीं मिल पाया.." मैंने कहा," समीर जी, आपको तो प्रेम मिला, खूब ढेरों ढेर मिला...लेकिन आप ही ने उसे ठुकरा दिया!" तब तुमने कहा था, " हाँ शिवली, सच में , मैंने प्रेम को नहीं पहचाना...उसकी कद्र नहीं की..पता नहीं क्यूँ ? लेकिन मुझे इन दिनों, बिलकुल ऐसा लगता है की सब कुछ होते हुए भी, सारे रिश्ते नाते होते हुए भी, मैं अनाथ हूँ!! शिवली, तुम पुनः मेरे जीवन में आ जाओ शिवली!! " "और तुम्हारी पत्नी बच्चों को अनाथ सा कर दूँ?? नहीं समीर जी, यह मुझसे नहीं होगा...क्योंकि, मैं जानती हूँ अनाथ होने का दुःख क्या होता है! कोई भी अपना ना होने का दर्द क्या होता है? इस भरी दुनिया में सारे चेहरे आपको देखकर मुस्कुराते हैं लेकिन कोई चेहरा आपकी आँखों के आंसू नहीं पढ़ पता! हजारों हाथ आपसे शेक-हैण्डस करते हैं लेकिन कन्धों को पकड़ कोई संबल नहीं देता ! आइसक्रीम की दुकान के बाहर खड़ी भीड़ में, शायद कोई एखाद केंडी पकड़ा भी दे, लेकिन, अरे बेटा संभालो...पिघल जाएगी, ऐसी ताकीद देना वाला कोई नहीं होता! साल दर साल पुरस्कार समारोह में जीती हुई ट्रोफिज़ पर जमी हुई धूल , कोई अपने आंचल से नहीं पोंछता! समीर जी, अनाथ तो मैं पहले ही थी और जी भी रही थी, लेकिन जब आप पहली दफा मेरे जीवन में आये तो मैंने जाना की ख़ुशी क्या होती है, लेकिन ..आपके जाने ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था! मेरा मन घृणा, वितृष्णा, नफरत के सारे दरिया पार कर चुका था!ऐसा लगता था जैसे इन देवदार के पहाड़ों सा ही ये जीवन बीत जायेगा.. मैं, तुम्हे भूल जाना चाहती थी..मैं इन हरे भरे पहाड़ों को देखकर सोचा करती थी...ये कोई तो बता दो कि याददाश्त कैसे जाती है ?ये पहाड़ जो सदियों से जाने कितनी बहारों के, कितनी खिज़ाओं के चश्मदीद गवाह हैं, कैसे इतना सब कुछ याद रख पाते होंगे? भूल ही जाते होंगे....तभी तो आज तलक खड़े रहने पाए हैं...सशक्त..निर्भीक...मैंने इनसे कहा, हे गिरिराज, बताओ मुझे कोई ऐसी दवा कि जिसके लेने से मैं अपना पिछला सब बिसरा दूं....बिसरा दूं वो यादें जो खुबसूरत तो थी...जब तक थीं/रही, खुबसूरत ही तो थीं, मगर अब काँटों सी चुभती हैं...उसकी यादें जो रातों में किसी सर्पदंश सी चोट कर जाती हैं...वो यादें जिनमें जीकर मैं ज़िन्दगी गुजारने को बाध्य हूँ या यूँ कहूँ कि मृत्यु को अस्वीकारने के लिए प्रेरित हूँ!... वो पावस प्रेम जिसने मुझे तृप्त किया कभी...वो सुन्दर स्पर्श..वो भीने भीने एहसासात उन सभी को कैसे भूल जाऊं? क्या ऐसा कुछ है जिससे ये याददाश्त चली जाती है ?? और यदि नहीं है, तो क्यूँ मैं बाध्य हूँ वो सब भूल जाने को? मैं पूछती थी ये सवाल और देखती थी, हमेशा, अपलक, इन अनाथ पहाड़ों की ओर!
और तब, और तब मैंने जाना की, अनाथ होना ( जो मैं पहले से ही थी) और अनाथ हो जाना (जो तुम्हारे जाने से, फिर एक बार हो गयी थी) कितनी बड़ी बात है! मेरे ख्याल से हिंदी के इस शब्द, 'अनाथ' में ज़बरदस्त ताकत है! ऐसी ताकत जो अंग्रेजी के 'ORPHAN' में नहीं| जिस क्षण, जिस पल किसी इंसान को इस बात का बोध होता है या करवाया जाता है की वो 'अनाथ' है, वो क्षण वो पल उसे एहसास करवा देता है कि उसे कितना मज़बूत होने की जरुरत है! मुझे मज़बूत बनाने में, समीर जी, आपका बहुत बड़ा हिस्सा रहा है! आज मैं इस ख़त के ज़रिये, आपको सादर सस्नेह एवं पूर्ण ह्रदय से धन्यवाद देना चाहती हूँ; क्योंकि, यदि तो आपने मुझे उस कमज़ोर क्षण में सहारा दे दिया होता, मुझे अपना लिया होता तो मैं तो सहारे की आदी हो गयी होती न और हर मोड़ पे जीवन के, वोही सहारा खोजती! लेकिन आज, मैं स्वतंत्र हूँ, आत्म-निर्भर हूँ! हाँ मैं अनाथ हूँ लेकिन एक सशक्त स्त्री भी हूँ! तुम कहते हो की 'तुम' अनाथ हो गए हो?? सभी के रहते? सभी का प्रेम पाकर भी? और यदि ऐसा है, तो मुझे भी वही करने दो जो कई कई सालों पहले तुमने मेरे साथ किया था...मुझे अकेला छोड़ कर...आज मैं भी तुमसे विदा लेती हूँ! ये अनाथ होना, शायद, इस दफा 'तुम्हे' मजबूत बनाये...क्योंकि मुझे अब समझ में आ गया है कि किसी अनाथ को सहारा देना, वास्तव में क्या होता है!!
शिवली ने फिर वो ख़त समीर के होटल में मुकुल भैया जी के हाथों भिजवा दिया और बोट वाले से कहा परली तरफ वाले काली मंदिर की ओर लेना भाई .. फिर उसने धीरे से खुद से ही कहा, कहते हैं बुरुंश के फूलों का रस इंसानी ह्रदय को सशक्त और सुदृढ़ बनाता है और फिर हल्के से मुस्कुरा पड़ी...
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